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जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन: भगवद गीता के 5 शाश्वत सिद्धांत

जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन: भगवद गीता के 5 शाश्वत सिद्धांत

जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन: भगवद गीता के शाश्वत सिद्धांत

Table of Contents

भगवद गीता, भारतीय साहित्य का एक ऐसा अद्वितीय ग्रंथ है जो सदियों से मानवता को मार्गदर्शन देता आ रहा है। यह केवल एक धार्मिक पुस्तक नहीं है, बल्कि यह जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाने वाली और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करने वाली एक अद्वितीय रचना है। महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संकलन भगवद गीता के रूप में हुआ, जिसमें जीवन, धर्म, कर्म, भक्ति, और आत्मा के शाश्वत सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

भगवद गीता के 18 अध्यायों में निहित उपदेश किसी विशेष धर्म, जाति, या समाज तक सीमित नहीं हैं; वे सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। इन उपदेशों का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करना है, जो उसे न केवल आत्मिक उन्नति की दिशा में प्रेरित करता है, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में संतुलन और समृद्धि प्राप्त करने में भी सहायता करता है।

गीता का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन: भगवद गीता के 5 शाश्वत सिद्धांत

महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र में हुआ, जो भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह युद्ध केवल दो परिवारों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष नहीं था, बल्कि यह धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष था।

भगवद गीता इसी संघर्ष के दौरान उत्पन्न हुई है, जब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने ही बंधु-बांधवों के खिलाफ लड़ने के लिए असमंजस और द्वंद्व की स्थिति में था। अर्जुन ने युद्ध से पीछे हटने का विचार किया, लेकिन तभी भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अपने कर्तव्यों का स्मरण कराया और उसे जीवन के उच्चतम सत्य से अवगत कराया। गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल अर्जुन को, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति को अपने कर्तव्यों और धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी।

भगवद गीता का सांस्कृतिक महत्व भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में व्यापक है। यह ग्रंथ समय और स्थान की सीमाओं से परे है और हर युग में प्रासंगिक रहा है। गीता ने न केवल भारतीय समाज में बल्कि विश्व भर के विचारकों, दार्शनिकों और आध्यात्मिक गुरुओं को भी प्रेरित किया है। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद जैसे महान व्यक्तित्वों ने गीता के उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात किया और उनके माध्यम से समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास किया।

भगवद गीता के शाश्वत सिद्धांत

जीवन का सर्वोच्च मार्गदर्शन: भगवद गीता के 5 शाश्वत सिद्धांत

भगवद गीता में वर्णित सिद्धांत केवल धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन तक सीमित नहीं हैं; वे जीवन के हर पहलू को प्रभावित करते हैं। गीता के उपदेश व्यक्ति को जीवन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं, जो उसे न केवल आत्मिक शांति प्रदान करता है, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में भी सफलता की दिशा में अग्रसर करता है। आइए, गीता के इन शाश्वत सिद्धांतों का गहन विश्लेषण करें:

1. कर्मयोग: निष्काम कर्म का सिद्धांत

भगवद गीता का प्रमुख सिद्धांत है कर्मयोग, जो व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया कि हमें अपने कर्मों का निष्पादन बिना किसी फल की इच्छा के करना चाहिए। यह सिद्धांत गीता के मुख्य उपदेशों में से एक है और इसे जीवन के हर क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। कर्मयोग का अर्थ है कि व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी कार्य को बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के, केवल अपने कर्तव्य के रूप में करना चाहिए। गीता के अनुसार, यह मानव जीवन का सर्वोच्च धर्म है।

कर्मयोग केवल भौतिक कार्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानसिक और आत्मिक कर्मों को भी शामिल करता है। गीता हमें सिखाती है कि हमें अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करना चाहिए और उनके फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात, तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल में नहीं। कर्मयोग का यह सिद्धांत व्यक्ति को अपने जीवन में आत्मविश्वास, धैर्य और निस्वार्थता की भावना विकसित करने में सहायता करता है।

कर्मयोग के सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान और समर्पित बनाता है। यह सिद्धांत व्यक्ति को अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो, सामाजिक जीवन हो, या व्यवसायिक जीवन – कर्मयोग का सिद्धांत हर जगह प्रासंगिक है।

2. ज्ञानयोग: आत्मज्ञान का मार्ग

ज्ञानयोग गीता के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करता है। ज्ञानयोग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंध को समझना और आत्मज्ञान की प्राप्ति करना। यह मार्ग व्यक्ति को उसकी वास्तविक पहचान का बोध कराता है। गीता के अनुसार, आत्मा अजर-अमर और अविनाशी है, जबकि शरीर नश्वर है। आत्मा का ज्ञान ही व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग का महत्व बताते हुए कहा कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। आत्मा शाश्वत, अनादि, और अनंत है। यह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। गीता में कहा गया है, “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥” अर्थात, आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। ज्ञानयोग का यह सिद्धांत व्यक्ति को आत्मा के शाश्वत स्वरूप का बोध कराता है और उसे जीवन के मूलभूत सत्य से अवगत कराता है।

ज्ञानयोग का सिद्धांत व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है। यह व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्तियों का बोध कराता है और उसे आत्मा के शाश्वत स्वरूप का अनुभव कराता है। ज्ञानयोग का पालन करने से व्यक्ति अपने जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है और उसे अपने वास्तविक उद्देश्य का बोध होता है। यह मार्ग व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करता है और उसे जीवन की अनंत संभावनाओं से अवगत कराता है।

3. भक्तियोग: प्रेम और भक्ति का मार्ग

गीता में भक्तियोग का भी विशेष महत्व है। भक्तियोग का अर्थ है भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण, श्रद्धा और प्रेम की भावना। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्ति ही वह मार्ग है जिसके द्वारा व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है। भक्तियोग व्यक्ति को अपने अहंकार से मुक्त करता है और उसे भगवान की शरण में जाने के लिए प्रेरित करता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।” अर्थात, मेरा मनन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। यह सिद्धांत व्यक्ति को भगवान के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण को बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है। भक्तियोग के माध्यम से व्यक्ति अपने मन, वचन और कर्म को भगवान की सेवा में समर्पित करता है और इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति करता है।

भक्तियोग का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह व्यक्ति को भगवान के प्रति पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ समर्पित करता है। भक्तियोग के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में प्रेम, करुणा, और सहनशीलता की भावना विकसित करता है। यह मार्ग व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करता है और उसे भगवान की शरण में जाने के लिए प्रेरित करता है। भक्तियोग का पालन करने से व्यक्ति अपने जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है और उसे आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर करता है।

4. ध्यानयोग: मानसिक और आत्मिक शांति का मार्ग

गीता में ध्यानयोग का भी उल्लेख किया गया है, जो व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शांति प्राप्त करने में सहायता करता है। ध्यानयोग का अर्थ है मन को एकाग्र कर भगवान के ध्यान में लीन होना। गीता के अनुसार, ध्यानयोग व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्तियों का बोध कराता है और उसे आत्मिक शांति की ओर ले जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर सकता है और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर सकता है। ध्यानयोग के माध्यम से व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करता है और उसे जीवन के सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने में सहायता मिलती है। यह व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करता है।

ध्यानयोग का सिद्धांत व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करता है। यह व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्तियों का बोध कराता है और उसे जीवन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करता है। ध्यानयोग के माध्यम से व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर होता है। यह मार्ग व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शांति प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है और उसे आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर करता है।

5. निष्काम भाव: अहंकार और स्वार्थ से मुक्ति

भगवद गीता में निष्काम भाव का भी विशेष महत्व है। यह सिद्धांत व्यक्ति को अपने कर्मों को बिना किसी स्वार्थ और अहंकार के करने के लिए प्रेरित करता है। निष्काम भाव का अर्थ है अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी फल की इच्छा के करना। गीता के अनुसार, निष्काम भाव व्यक्ति को उसके कर्मों के बंधन से मुक्त करता है और उसे आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर करता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥” अर्थात, योगस्थ होकर कर्म करो, और सफलता-असफलता की चिंता किए बिना समभाव से कर्म करने का नाम योग है। निष्काम भाव का यह सिद्धांत व्यक्ति को अहंकार और स्वार्थ से मुक्त करता है और उसे अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करने के लिए प्रेरित करता है।

निष्काम भाव का पालन करने से व्यक्ति अपने जीवन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है और उसे आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर करता है। यह सिद्धांत व्यक्ति को अपने कर्मों के बंधन से मुक्त करता है और उसे आत्मिक शांति प्राप्त करने में सहायता करता है। निष्काम भाव के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन और समृद्धि प्राप्त करता है और उसे जीवन के वास्तविक उद्देश्य का बोध होता है।

गीता के 18 अध्यायों का विस्तृत विश्लेषण

भगवद गीता के 18 अध्यायों में जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन चर्चा की गई है। प्रत्येक अध्याय एक विशेष विषय पर केंद्रित है और व्यक्ति को जीवन के विभिन्न पक्षों को समझने में सहायता करता है। आइए इन अध्यायों का संक्षेप में विश्लेषण करें:

1. अर्जुन विषाद योग: अर्जुन के द्वंद्व की स्थिति

इस अध्याय में अर्जुन की मानसिक स्थिति का वर्णन किया गया है, जब वह अपने बंधु-बांधवों के खिलाफ युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था। अर्जुन के इस विषाद और द्वंद्व को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेशों के माध्यम से दूर किया।

2. साङ्ख्य योग: आत्मा और शरीर का ज्ञान

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा और शरीर के भिन्न-भिन्न स्वभाव को समझाया। उन्होंने अर्जुन को बताया कि आत्मा शाश्वत है और शरीर नश्वर है।

3. कर्म योग: निष्काम कर्म का सिद्धांत

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्काम भाव से कर्म करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, फल की चिंता किए बिना।

4. ज्ञान कर्म संन्यास योग: ज्ञान और कर्म का संबंध

इस अध्याय में ज्ञान और कर्म के संबंध को समझाया गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ज्ञान के बिना कर्म अधूरा है और कर्म के बिना ज्ञान निष्फल है।

5. कर्म संन्यास योग: कर्म का त्याग

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म के त्याग और कर्म के साथ संन्यास का महत्त्व समझाया। उन्होंने कहा कि कर्म का त्याग केवल तभी सार्थक है जब वह ज्ञान के साथ किया जाए।

6. ध्यान योग: मन का नियंत्रण

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ध्यानयोग के माध्यम से मन को नियंत्रित करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर सकता है।

7. ज्ञान विज्ञान योग: ज्ञान और विज्ञान का समन्वय

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान और विज्ञान के समन्वय का महत्व समझाया। उन्होंने कहा कि ज्ञान और विज्ञान दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने में सहायक हैं।

8. अक्षर ब्रह्म योग: ब्रह्म का ज्ञान

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ब्रह्म का ज्ञान दिया। उन्होंने कहा कि ब्रह्म शाश्वत है और वही सृष्टि का मूल है।

9. राजविद्या राजगुह्य योग: गूढ़ ज्ञान का रहस्य

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गूढ़ ज्ञान का रहस्य समझाया। उन्होंने कहा कि यह ज्ञान केवल उन्हीं को प्राप्त होता है जो भगवान के प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण रखते हैं।

10. विभूति योग: भगवान की विभूतियों का वर्णन

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि उनकी विभूतियां सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं और वे ही सब कुछ के अधिष्ठाता हैं।

11. विश्वरूप दर्शन योग: भगवान का विश्वरूप

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया। यह रूप सम्पूर्ण सृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है और भगवान की अनंत शक्तियों को दर्शाता है।

12. भक्तियोग: भक्ति का मार्ग

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्तियोग का महत्व समझाया। उन्होंने कहा कि भक्ति ही वह मार्ग है जिसके माध्यम से व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है।

13. क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग: शरीर और आत्मा का भेद

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शरीर और आत्मा के भेद को समझाया। उन्होंने कहा कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है।

14. गुणत्रय विभाग योग: सत्व, रजस और तमस गुण

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सत्व, रजस और तमस गुणों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि यह गुण व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव डालते हैं और उसे कर्मों में बाँधते हैं।

15. पुरुषोत्तम योग: सर्वोच्च पुरुष का ज्ञान

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पुरुषोत्तम का ज्ञान दिया। उन्होंने कहा कि वही सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं और वही सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठाता हैं।

16. दैवासुर सम्पद विभाग योग: दैवी और आसुरी सम्पदाएँ

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दैवी और आसुरी सम्पदाओं के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि दैवी सम्पदाएँ व्यक्ति को उन्नति की ओर ले जाती हैं और आसुरी सम्पदाएँ उसे पतन की ओर धकेलती हैं।

17. श्रद्धात्रय विभाग योग: श्रद्धा के तीन प्रकार

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रद्धा के तीन प्रकारों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि श्रद्धा के तीन प्रकार – सत्विक, राजसिक, और तामसिक होते हैं और यह व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करती है।

18. मोक्ष संन्यास योग: मोक्ष का मार्ग

यह गीता का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मोक्ष का मार्ग दिखाया। उन्होंने कहा कि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग ज्ञान, भक्ति, और कर्म के समन्वय से ही संभव है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया कि उसे अपने सभी कर्मों को भगवान को समर्पित कर देना चाहिए और उन्हें बिना किसी भेदभाव और अहंकार के करना चाहिए। यही मोक्ष की प्राप्ति का सच्चा मार्ग है।

गीता के आध्यात्मिक और नैतिक संदेश

भगवद गीता का आध्यात्मिक और नैतिक संदेश अद्वितीय है। यह ग्रंथ मानव जीवन के हर पहलू को गहराई से समझता है और उसे सही दिशा में मार्गदर्शन करता है। गीता के उपदेश समय, परिस्थिति, और स्थान से परे हैं और हर युग में प्रासंगिक हैं।

गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने यह संदेश दिया है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। यह कर्मयोग का सिद्धांत व्यक्ति को न केवल उसके व्यक्तिगत जीवन में, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन में भी सफलता की ओर ले जाता है।

ज्ञानयोग के माध्यम से गीता व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करती है। आत्मा के शाश्वत और अनंत स्वरूप का बोध ही व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर सकता है।

भक्तियोग का सिद्धांत व्यक्ति को भगवान के प्रति पूर्ण श्रद्धा और समर्पण की ओर ले जाता है। भक्ति के माध्यम से व्यक्ति भगवान की कृपा प्राप्त करता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

ध्यानयोग व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करता है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित कर आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर होता है।

गीता का समकालीन परिप्रेक्ष्य

आज के दौर में भी भगवद गीता का महत्व बरकरार है। जीवन के हर क्षेत्र में गीता के उपदेशों का पालन किया जा सकता है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो, सामाजिक जीवन हो, या व्यवसायिक जीवन – गीता के सिद्धांत हर जगह लागू होते हैं।

आधुनिक युग में, जब व्यक्ति विभिन्न समस्याओं और चुनौतियों का सामना कर रहा है, गीता उसे सही दिशा में मार्गदर्शन करती है। गीता के उपदेश व्यक्ति को आत्मविश्वास, धैर्य, और निस्वार्थता की भावना विकसित करने में सहायता करते हैं।

निष्कर्ष

भगवद गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का सार है। इसमें वर्णित उपदेश जीवन के हर क्षेत्र में अमूल्य सिद्ध होते हैं। गीता का अध्ययन और उसके सिद्धांतों का अनुपालन करने से व्यक्ति न केवल अपने जीवन को सुसंस्कृत कर सकता है, बल्कि आत्मा की गहराई को भी समझ सकता है। भारतीय संस्कृति में गीता का स्थान सर्वोच्च है, और यह सदैव हमें जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराती रहेगी। गीता का संदेश शाश्वत है, और यह हर युग में मानव जीवन के लिए एक प्रकाशपुंज के रूप में कार्य करता रहेगा।

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